Thursday, March 4, 2021

लाला हदयाल जी


 लाला हरदयाल जी का जन्म 4 अक्टूबर 1884 को दिल्ली के पंजाबी परिवार में हुआ। हरदयाल, भोली रानी और गौरी दयाल माथुर की सांत संतानों में से छठी संतान थे। उनके पिता जिला न्यायालय के पाठक थे। लाला कोई उपनाम नही बल्कि कायस्थ समुदाय के बीच उप-जाति पदनाम था। साथ ही उनकी जाति में ज्ञानी लोगो को पंडित की उपाधि भी दी जाती है।

जीवन के शुरुवाती दिनों में ही उनपर आर्य समाज का काफी प्रभाव पड़ा। साथ ही वे भिकाजी कामा, श्याम कृष्णा वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर से भी जुड़े हुए थे। कार्ल मार्क्स, गुईसेप्पे मज्ज़िनी, और मिखैल बकुनिन से उन्हें काफी प्रेरणा मिली।

कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में पढ़कर उन्होंने सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली से संस्कृत में बैचलर की डिग्री हासिल की और साथ ही पंजाब यूनिवर्सिटी से उन्होंने संस्कृत में मास्टर की डिग्री भी हासिल की थी। 1905 में संस्कृत में उच्च-शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से उन्होंने 2 शिष्यवृत्ति मिली।

इसके बाद आने वाले सालो में वे ऑक्सफ़ोर्ड से मिलने वाली शिष्यवृत्ति को त्यागकर 1908 में भारत वापिस आ गए और तपस्यमायी जीवन जीने लगे। लेकिन भारत में भी उन्होंने प्रसिद्ध अखबारों के लिए कठोर लेख लिखना शुरू किया, जब ब्रिटिश सरकार ने उनके कठोर लेखो को देखते हुए उनपर प्रतिबंध लगाया तो लाला लाजपत राय ने उन्हें भारत छोड़कर विदेश चले जाने की सलाह दी थी।

1910 में हरदयाल सेन फ्रांसिस्को (अमेरिका) पहुचे | वहा उन्होंने भारत से गये मजदूरों को संगठित किया | “गदर नामक पत्र निकाला | इसी के आधार पर पार्टी का नाम भी “गदर पार्टी रखा गया | “गदर पत्र ने संसार का ध्यान भारत में अंग्रेजो द्वारा किये जा रहे अत्याचारों की ओर दिलाया | नई पार्टी की कनाडा , चीन , जापान आदि में शाखाए खोली गयी | हरदयाल इसके महासचिव थे |

प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर लाला हरदयाल ने भारत ने सशस्त्र क्रान्ति को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाये | जून 1915 में जर्मनी से दो जहाजो में भरकर बंदूके बंगाल भेजी गयी ,परन्तु मुखबिरों की सुचना पर दोनों जहाज जब्त कर लिए गये | हरदयाल ने भारत के पक्ष का प्रचार करने के लिए स्विटजरलैंड , तुर्की आदि देशो की भी यात्रा की | जर्मनी ने उन्हें कुछ समय तक नजरबंद भी कर लिया गया था | वहा से वे स्वीडन चले गये उन्होंने अपने जीवन के 15 वर्ष बिताये |

अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कही से सहयोग मिलने पर वे शांतिवाद का प्रचार करने लगे | इस विषय पर व्याख्यान देने के लिए वे फिलाडल्फिया गये थे | वे 1939 में भारत आने के लिए उत्सुक थे | उन्होंने अपनी पुत्री का मुंह भी नही देखा जो उनके देश छोड़ने के बाद पैदा हुयी थी पर यह हो न सका | भारत में उनके आवास की व्यवस्था हो चुकी थी पर देश की आजादी का यह फकीर 4 मार्च 1939 को कुर्सी में बैठा-बैठा विदेश में ही सदा के लिए सो गया |

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