Saturday, October 31, 2020

वल्लभभाई पटेल जी

 


वल्लभभाई झावेरभाई पटेल जो सरदार पटेल के नाम से लोकप्रिय थे, एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। वे एक भारतीय अधिवक्ता और राजनेता थे, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और भारतीय गणराज्य के संस्थापक पिता थे जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए देश के संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई और एक एकीकृत, स्वतंत्र राष्ट्र में अपने एकीकरण का मार्गदर्शन किया। भारत और अन्य जगहों पर, उन्हें अक्सर हिंदी, उर्दू और फ़ारसी में सरदार कहा जाता था, जिसका अर्थ है "प्रमुख"। उन्होंने भारत के राजनीतिक एकीकरण और 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान गृह मंत्री के रूप में कार्य किया।

पटेल का जन्म नडियादगुजरात में हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लन्दन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया।

स्वतंत्रता के समय भारत में 562 देसी रियासतें थीं। इनका क्षेत्रफल भारत का 40 प्रतिशत था। सरदार पटेल ने आजादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही वीपी मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हे स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। केवल जम्मू एवं कश्मीरजूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा। जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी। वहाँ के नवाब ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। राज्य की सर्वाधिक जनता हिंदू थी और भारत विलय चाहती थी। नवाब के विरुद्ध बहुत विरोध हुआ तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गयी। नवाब भागकर पाकिस्तान चला गया और 9 नवम्बर 1947 को जूनागढ भी भारत में मिल गया। फरवरी 1948 में वहाँ जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा। हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वहाँ के निजाम ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा। वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे। अन्ततः भारतीय सेना 13 सितंबर 1948 को हैदराबाद में प्रवेश कर गयी। तीन दिनों के बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और नवंबर 1948 में भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। नेहरू ने काश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गयी। 5 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री मोदीजी और गृहमंत्री अमित शाह जी के प्रयास से कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 और 35(अ) समाप्त हुआ। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया और सरदार पटेल का भारत को अखण्ड बनाने का स्वप्न साकार हुआ। 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख के रूप में दो केन्द्र शासित प्रेदश अस्तित्व में आये। अब जम्मू-कश्मीर केन्द्र के अधीन रहेगा और भारत के सभी कानून वहाँ लागू होंगे। पटेल जी को कृतज्ञ राष्ट्र की यह सच्ची श्रद्धांजलि है। 

वल्लभभाई पटेल जी की जयंती पर जन हितकारी संगठन उन्हे कोटि कोटि नमन करता है।

Tuesday, October 27, 2020

जतिंद्र नाथ दास जी


जतिन्द्र नाथ दास स्वतंत्रता से पहले अनशन(उपवास) से शहीद होने वाले महान क्रान्तिकारी थे, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए जेल में अपने प्राण त्याग दिए और शहादत पाई। इन्हें 'जतिन दास' के नाम से भी जाना जाता है, जबकि संगी साथी इन्हें प्यार से 'जतिन दा' कहा करते थे।जतिन दास का नाम देश के बड़े अनशन सत्याग्रही के रूप में लिया जाता है| लाहौर जेल में 63 दिनों तक भूख हड़ताल पर रहने के बाद जतिन दास की मौत के सदमे ने पूरे देश को हिला दिया था|

जतिन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता), में हुआ था। उनके पिता का नाम बंकिम बिहारी दास और माता का नाम सुहासिनी देवी था। जतिन्द्रनाथजब नौ वर्ष के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। 16 वर्ष की उम्र में 1920 में जतिन दास ने मैट्रिक की परीक्षा पास की।जब जतिन्द्रनाथअपनी आगे की शिक्षा पूर्ण कर रहे थे तभी वे बंगाल में एक क्रान्तिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ में शामिल हो गये|

युवावस्था से ही उनके अन्दर देश को अंग्रेजों से आज़ाद कराने की आग धधक रही थी| उन्होंने 1921 में असहयोग आन्दोलन में भाग लिया| विदेशी कपड़ों की दुकान पर धरना देते हुए वे गिरफ़्तार कर लिये गए। उन्हें 6 महीने की सज़ा हुई। लेकिन जब चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो निराश जतिन्द्रनाथफिर कॉलेज में भर्ती हो गए। कॉलेज का यह प्रवेश जतिन्द्रनाथके जीवन में निर्णायक सिद्ध हुआ।

एक युवा क्रान्तिकारी के माध्यम से जतिन्द्रनाथ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सचिंद्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संस्था 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' के सदस्य बन गये। अपने सम्पर्कों और साहसपूर्ण कार्यों से उन्होंने दल में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया और अनेक क्रान्तिकारी कार्यों में भाग लिया।

नवम्बर 1925 में जतिन्द्रनाथ को 'दक्षिणेश्वर बम कांड' और 'काकोरी कांड' के सिलसिले में गिरफ़्तार किया गया, किन्तु प्रमाणों के अभाव में मुकदमा न चल पाने पर वे नज़रबन्द कर लिये गए। जेल में जतिन्द्रनाथने कैदियों पर हो रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज उठायी और भूख हड़ताल पर चले गये|जतिन्द्रनाथकी भूख हड़ताल का जेल प्रशासन पर इतना प्रभाव पड़ा कि जेल अधीक्षक ने 20 दिनों के बाद ही माफ़ी मांगी तो ही जतिन्द्रनाथने अपना अनशन समाप्त किया और जेल अधीक्षक को उन्हें रिहा करना पड़ा। यह जतिन्द्रनाथ की दृढ़ इच्छा शक्ति की जीत थी|

जेल से बाहर आने पर जतिन्द्रनाथ ने अपना अध्ययन और क्रान्तिकारी गतिविधियों दोनों को जारी रखा। 1928 की 'कोलकाता कांग्रेस' में वे 'कांग्रेस सेवादल' में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सहायक थे। वहीं उनकी भगत सिंह से भेंट हुई और उनके अनुरोध पर बम बनाने के लिए आगराआ गए। 8 अप्रैल1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बम केन्द्रीय असेम्बली में फेंके, वे इन्हीं के द्वारा बनाये हुए थे। 14 जून,1929 को जतिन्द्रनाथ को क्रान्तिकारी गतिविधियोंके लिये गिरफ़्तार कर लाहौर जेल में कैद कर लिया गया और उन पर 'लाहौर षड़यंत्र केस' के तहत मुकदमा चला।

 लाहौर जेल में जतिन्द्रनाथ ने अन्य क्रान्तिकारी साथियों के साथ भूख हड़ताल शुरू कर दी| उन्होंने भारतीय कैदियों और विचाराधीन कैदियों के लिए समानता की मांग की| भारतीय कैदियों के लिए वहां सब दुखदायी था| जेल प्रशासन द्वारा उपलब्ध करायी गई वर्दियां कई-कई दिनों तक नहीं धुलती थी| रसोई क्षेत्र और भोजन चूहों और तिलचट्टों से भरा रहता था| कोई भी पठनीय सामग्री जैसे अखबार या लिखने के लिए कोई कागज इत्यादि नहीं दिया जाता था जबकि एक ही जेल में अंग्रेज कैदियों को सारी सुविधायें मिल रही थी|

जेल में जतिन्द्रनाथ की भूख हड़ताल अवैध नजरबंदियों के खिलाफ प्रतिरोध में एक महत्वपूर्ण कदम था| उनकाकहना था कि एक बार अनशन आरम्भ होने पर हम अपनी मांगों की पूर्ति के बिना उसे नहीं तोड़ेंगे। कुछ समय के बाद जेल अधिकारियों ने नाक में नली डालकर बलपूर्वक अनशन पर बैठे क्रांतिकारियों को जबरन कुछ खिलाने की कोशिश की, उन्हें मारा-पीटा गया|जतिन्द्रनाथ को 20दिन के पहले अपने अनशन का अनुभव था। उनके साथ यह युक्ति काम नहीं आई। नाक से डाली नली को सांस से खींचकर वे दांतों से दबा लेते थे।

अन्त में पागल खाने के एक डॉक्टर ने एक नाक की नली दांतों से दब जाने पर दूसरी नाक से नली डाल दी, जो जतिन्द्रनाथ के फेफड़ों में चली गई। उनकी घुटती सांस से और लगातार 63 दिनों से कुछ नहीं खाने के कारण जतिन्द्रनाथको निमोनिया हो गया। कर्मचारियों ने उन्हें धोखे से बाहर ले जाना चाहा, लेकिन जतिन्द्रनाथ अपने साथियों से अलग होने के लिए तैयार नहीं हुए।उनकी यह यादगार भूख हड़ताल 13 जुलाई 1929 को शुरू हुई और 63 दिनों तक चली| जतिन्द्रनाथ 13 सितम्बर 1929 को मात्र 24 वर्ष की उम्र में ही शहीद हो गये और उनकी भूख हड़ताल (अनशन) अटूट रही|

दुर्गा भाभी ने अंतिम संस्कार के लिए उनके पार्थिव शरीर को लाहौर से कोलकता ले जाने की तयारी की और उनके पार्थिव शरीर को रेल द्वारा लाहौर से कोलकता ले जाया गया| उस सच्चे शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हजारों लोग रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों पर एकत्रित होकर सच्ची श्रद्धांजलि दे रहे थे| उनके अंतिम संस्कार के समय कोलकता में दो मील लम्बा जुलूस उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए खड़ा था|देश के बड़े अनशन सत्याग्रहीशहीद शिरोमणि जतिन्द्रनाथ दास के देश प्रेम और अनशन की पीड़ा का कोई सानी नहीं है| वह आज भी हमारे प्रेरणा स्त्रोत हैं|

जतिन्द्रनाथ दास जी की जयंती पर जन हितकारी संगठन उन्हें कोटि कोटि नमन करता है 💐💐🙏🏻🙏🏻


जय भारत

 

Wednesday, October 7, 2020

दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी)



महिला क्रांतिकारी दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी)
जयंती : 7 अक्टूबर 1907

              दुर्गावती देवी जिन्हें हम दुर्गा भाभी के नाम से जानते है भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों की प्रमुख सहयोगी थीं। दुर्गावती देवी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को शहजादपुर, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था | दुर्गावती देवी का विवाह क्रान्तिकारी भगवतीचरण वोहरा से हुआ था। नेशनल कालेज-लाहौर के विद्यार्थी भगवतीचरण क्रांतिभाव से भरे हुए थे ही, उनकी पत्नी दुर्गावती देवी भी आस-पास के क्रांतिकारी वातावरण के कारण उसी में रम गईं थी। 1925 में उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शचीन्द्रनाथ रखा गया। जन-जागृति और शिक्षा के महत्व को समझने वाली दुर्गावती देवी ने खादी अपनाते हुए अपनी पढाई जारी रखी |

            भगवती चरण बोहरा राय साहब के पुत्र होने के बावजूद अंग्रेजों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। वर्ष 1920 में पिता जी की मृत्यु के पश्चात भगवती चरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्‍‌नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से सहयोग किया। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न था। ससुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को चालीस हजार व पिता बांके बिहारी ने पांच हजार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आजाद कराने में उपयोग किया।

            दुर्गा भाभी ने सन् 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता की। साण्डर्स वध के पश्चात् सुखदेव दुर्गा भाभी के पास आये। सुखदेव ने दुर्गा भाभी से 500 सौ रूपये की आर्थिक मदद ली तथा उनसे प्रश्न किया- आपको पार्टी के काम से एक आदमी के साथ जाना है, क्या आप जायेंगी? प्रत्युत्तर में हाँ मिला। सुखदेव ने कहा- आपके साथ छोटा बच्चा शची (शचीन्द्रनाथ) होगा, गोली भी चल सकती है। दुर्गा स्वरूप रूप धर दुर्गा भाभी ने कहा- सुखदेव, मेरी परीक्षा मत लो। मैं केवल क्रान्तिकारी की पत्नी ही नहीं हूँ, मैं खुद भी क्रान्तिकारी हूँ। अब मेरे या मेरे बच्चे के प्राण क्रान्तिपथ पर जायें, मैं तैयार हूँ|"

            दूसरे दिन 18 दिसम्बर 1928 को सुखदेव अंग्रेज़ अफ़सर साण्डर्स को मारने वाले भगत सिंह और राजगुरू को लेकर दुर्गा भाभी के घर आ गये। भगत सिंह ने (फैल्ट हैट ओढ़े, पतलून और ऊपर बढ़िया ओवरकोटपैर में चमकते हुए काले बूट जूते पहने छ: फुटा गोरा-चिट्टा पंजाबी जवानजो उच्च अधिकारी लग रहा था) शची को गोद में लिया, शची के कारण भगत सिंह का चेहरा छिपा था, पीछे दुर्गा भाभी बड़ी रूआब से ऊँची हील की सैण्डिल पहने, पर्स लटकाये तथा राजगुरू नौकर रूप में पीछे-पीछे स्टेशन पहुंचे। जो एक पुरानी-फटी दरी को लपेटकर साथ लिए थे,का सिर मुँडा हुआ था और शरीर पर पुराने कपड़े थे| भगत सिंह और दुर्गा भाभी कलकता मेल के प्रथम श्रेणी में तथा राजगुरू तृतीय श्रेणी के डिब्बे में चढ़ गये।

            इस प्रकार भगत सिंह और राजगुरू को सकुशल लाहौर से निकालने का श्रेय दुर्गा भाभी को है कि किस चतुराई से पुलिस की आँखों में धूल झोंकर निकाल लाई थीयह आजादी की लड़ाई के इतिहास का अनछुआ पृष्ठ है। कलकता पहुचने पर भगवतीचरण ने अपनी क्रान्तिकारी पत्नी दुर्गा की प्रशंसा की और उनके साथ विवाह-बन्धन में बँध जाने के लिए स्वयं को सराहावे दुर्गा की निर्भयता और देश के प्रति समर्पण-भाव पर मुग्ध हो गए थे। धन्य हैं ये वीरांगना। इनके अतिरिक्त भेष बदल बदल कर बम, पिस्तौल क्रांतिकारियों को दुर्गा भाभी अक्सर मुहैया कराती रहती थीं।

            दुर्गा भाभी अपने पति बोहरा के साथ मिलकर क्रांतिकारियों की हर तरह से मदद करती थीं। मात्र 23 वर्ष की अवस्था में पति के शहीद हो जाने के बाद भी दुर्गा भाभी के साहस में कोई कमी नहीं आई। दुर्गा भाभी मृत्यु की सूचना का वज्रपात सहते हुए, अन्तिम दर्शन भी न कर पाने का दंश झेलते हुए भी धैर्य और साहस की प्रतिमूर्ति बनी रहीं। पति की मृत्योपरान्त उनको श्रद्धांजलि रूपेण वे दोगुने वेग से क्रांति कार्य को प्रेरित करने लगी। भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त जब केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने को जाने लगे तो वीरांगना दुर्गा भाभी ने अपने बाह से खून निकाल कर तिलक लगाया और तब उन्हें विदा किया था।

          दुर्गा भाभी का काम साथी क्रांतिकारियों के लिए राजस्थान से पिस्तौल लाना व ले जाना था। चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते वक्त जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी उसे दुर्गा भाभी ने ही लाकर उनको दी थी। 9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने तत्कालीन बम्बई गवर्नर हैली पर गोली चला दी थी जिसमें गवर्नर हैली तो बच गया लेकिन सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी जिसके परिणाम स्वरूप अंग्रेज पुलिस इनके पीछे पड़ गई।

           समृद्ध परिवार की दुर्गा भाभी के लाहौर के तीनों घर तथा इलाहाबाद के दोनो घर जब्त हो चुके थे। पुलिस पीछे पडी थी। इस केस में उनके विरुद्ध वारण्ट भी जारी हुआ और दो वर्ष से ज़्यादा समय तक फरार रहने के बाद 12 सितम्बर 1931 को दुर्गा भाभी लाहौर में गिरफ्तार कर ली गयीं| 15 दिन के रिमाण्ड के पश्चात सबूतों के अभाव में दुर्गा भाभी को पुलिस को रिहा करना पड़ा। 1919 रेग्यूलेशन ऐक्ट के तहत तत्काल दुर्गा भाभी को कैद कर तीन वर्ष तक नजरबंद रखा गया और फिर लाहौर और दिल्ली प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई।

            तीन वर्ष बाद पाबंदी हटने पर दुर्गा भाभी ने प्यारेलाल गल्र्स स्कूल-गाजियाबाद में शिक्षिका के रूप में कार्य किया। इसी दौरान क्षय रोग हो गया परन्तु दुर्गा भाभी समाज-सेवा करते हुए कांग्रेस से जुडी रहीं। 1937 में दिल्ली कांग्रेस समिति की अध्यक्षा चुनी गईं पर कांग्रेस की कार्यशैली रास न आने के कारण उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया। 1938 में हड़ताल में दुर्गा भाभी पुनःजेल गईं।

             बालक शचीन्द्र को योग्य शिक्षा देने की चाह में दुर्गा भाभी ने मारिया मांटेसरी से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया तथा 1940 में लखनऊ में कैंट रोड के (नजीराबाद) एक निजी मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ मांटेसरी विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। सेवानिवृत्त के पश्चात् वे मृत्युपर्यंत अपने पुत्र शचीन्द्र के साथ गाजियाबाद में रहीं और शिक्षणकार्य करती रहीं। त्याग की परम्परा की संरक्षक दुर्गा भाभी ने लखनऊ छोडते समय अपना निवास-स्थल भी संस्थान को दान कर दिया। दुर्गा भाभी का देहान्त 92 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर सन् 1999 को हुआ।

              राष्ट के लिए समर्पित दुर्गा भाभी का सम्पूर्ण जीवन श्रद्धा-आदर्श-समर्पण के साथ-साथ क्रान्तिकारियों के उच्च आदर्शों और मानवता के लिए समर्पण को परिलक्षित करता है। वास्तव में दुर्गा भाभी भारत माता है| वोहरा दम्पत्ति जैसे क्रांतिकारियों ने अपना सर्वस्व हमारे राष्ट्र पर, हम पर न्योछावर करते हुए एक क्षण को भी कुछ विचारा नहीं। हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि हमने उन देशभक्तों के लिये, उनके सम्मान और सपनों के लिये, अपने देश के लिये अब तक क्या किया है और आगे क्या करने की योजना है।

           महिला क्रांतिकारी दुर्गावती देवी की जयंती पर 'जन हितकारी संगठन' उन्हें कोटि कोटि नमन करता है 💐💐🙏🏻🙏🏻
जय भारत🇮🇳


कर्तार सिंह सराभा

  महान क्रांतिकारी #कर्तार_सिंह_सराभा जी🙏🏻🙏🏻 #जयंती: 24 मई,1896💐💐               कर्तार सिंह सराबा भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में...