Sunday, May 23, 2021

कर्तार सिंह सराभा

 


महान क्रांतिकारी #कर्तार_सिंह_सराभा जी🙏🏻🙏🏻

#जयंती: 24 मई,1896💐💐

              कर्तार सिंह सराबा भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में से एक थे। भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिये अमेरिका में बनी ‘गदर पार्टी’ के अध्यक्ष थे। जिनको अंग्रेजी सरकार ने मात्र 19 वर्ष की अवस्था में क्रान्तिकारी गतिविधियों के कारण 16 नवंबर, 1915 को लाहौर सेन्ट्रल जेल में फांसी दे दी थी। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी भगत सिंह उन्हें अपना आदर्श मानते थे।

              क्रान्तिकारी कर्तार सिंह का जन्म 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना ज़िले के 'सराबा' नामक गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम साहिब कौर और उनके पिता का नाम मंगल सिंह था। कर्तार सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना के स्कूलों में हासिल की। सन 1905 के 'बंगाल विभाजन' के विरुद्ध क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रारम्भ हो चुका था, जिससे प्रभावित होकर कर्तार सिंह क्रांतिकारियों में सम्मिलित हो गये। क्रान्तिकारी विचार की जड़ें उनके हृदय में गहराई तक पहुँच चुकी थीं। उनके परिवार ने उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए उन्हें अमेरिका में संफ्रंसिस्को स्थित बर्कले यूनीवर्सिटी में दाखिला दिला दिया।

              एक बुजुर्ग महिला के घर में किराएदार के रूप में रहते हुए, जब अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर महिला द्वारा घर को फूलों व वीर नायकों के चित्रों से सजाया गया तो कर्तार सिंह ने इसका कारण पूछा। महिला के यह बताने पर कि अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर नागरिक ऐसे ही घर सजा कर खुशी का इज़हार करते हैं तो करतार सिंह के मन में भी यह भावना जागृत हुई कि हमारे देश की आज़ादी का दिन भी होना चाहिए। कर्तार सिंह के भीतर एक आज़ाद देश में रहते हुए अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, आत्मसम्मान व आज़ाद की तरह जीने की इच्छा पैदा हुई।

            कर्तार सिंह सराबा साहस की प्रतिमूर्ति थे। देश की आज़ादी से सम्बन्धित किसी भी कार्य में वे हमेशा आगे रहते थे। अप्रैल, 1913 में अमेरीका में रहने वाले भारतीयों ने देश की आजादी के लिए ‘गदर पार्टी’ का गठन किया जिसका मुख्य उद्देश्य सशस्त्र संघर्ष द्वारा भारत को अंग्रेजी गुलामी से मुक्त करवाना और लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना करना था। कर्तार सिंह इस पार्टी के एक महत्वपूर्ण कार्यकर्ता बने तथा अमेरिका में घूम-घूम कर इसका प्रचार करने लगे। कर्तार सिंह के प्रयासों से गदर अखबार भी निकलना शुरू हुआ, जिसके लिए वह मशीन को स्वयं चलाया करते थे तथा देश की आजादी के लिए लेख लिखते थे। कर्तार सिंह को ही इस अखबार के लिए धन इक्कठा करने की जिम्मेवारी सौंपी गयी और इस जिम्मेवारी को पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई भी अधूरी छोड़ दी। कुछ ही दिनों के अंदर गदर पार्टी और समाचार पत्र दोनों ही लोकप्रिय हो गए। वहां उन्होंने भारतवर्ष की आजादी के चाहने वालों को एक सिरे में पिरो दिया था।

          कर्तार सिंह देश की आजादी के लिए बिगुल बजाने को आतुर थे, जिसके लिए उन्होंने सितम्बर, 1914 में अपने वतन भारत पहुंच गए। उन्होंने देश में क्रांति के लिए पक्का इरादा कर लिया था और इसके लिए गदर की गूंज लेखों द्वारा छिपे रूप में प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया और लाहौर से लेकर कलकत्ता तक छावनियों में भारतीय सैनिकों को विद्रोह के लिए तैयार कर लिया| 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजी सेना युद्ध के कार्यों में अत्याधिक व्यस्त हो गई| इस अवसर का पूरा फायदा उठाते हुए ग़दर पार्टी के सदस्यों ने 5 अगस्त, 1914 को समाचार पत्र में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध “डिसिजन ऑफ डेक्लेरेशन ऑफ वार” नामक लेख प्रकाशित किया|

           अंत में विद्रोह के लिए 21 फरवरी, 1915 का दिन निश्चित किया गया और इसकी जानकारी सभी भारतीय सैनिकों को छावनियों में दे दी गई तथा पूरी तरह से तैयारी कर ली गई थी। लेकिन अफसोस है कि पांच दिन पहले कृपाल नाम का उनका एक साथी जिसने इस पूरी योजना की सूचना चुपके-चुपके अंग्रेजी सरकार तक पहुंचा दी| जिस कारण अंग्रेजों ने सभी छावनियों में भारतीय सैनिकों से हथियार ले लिए और बहुतों को गिरफ्तार कर लिया गया। कर्तार सिंह को जब इस विश्वासघात का पता चला तो उन्हें बड़ा सदमा पहुंचा। पुलिस उनका पूरी तरह से पीछा कर रही थी और उन्हें लाहौर में गिरफ्तार कर लिया गया। कर्तार सिंह को हथकडिय़ों व बेडिय़ों से पूरी तरह बांध दिया गया और इसी अवस्था में उन्हें अंग्रेज जजों के सामने पेश किया।

           कर्तार सिंह पर हत्या, डाका, शासन को उलटने का अभियोग लगाकर 'लाहौर षड़यन्त्र' के नाम से मुकदमा चलाया गया। उनके साथ 63 दूसरे क्रांतिकारियों पर भी मुकदमा चलाया गया था। कर्तार सिंह ने अदालत में अपने अपराध को स्वीकार करते हुए ये शब्द कहे- "मैं भारत में क्रांति लाने का समर्थक हूँ और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अमेरिका से यहाँ आया हूँ। यदि मुझे मृत्युदंड दिया जायेगा, तो मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझूँगा क्योंकि पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार मेरा जन्म फिर से भारत में होगा और मैं मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए काम कर सकूँगा|”

           जज ने मुकदमे का निर्णय सुनाते हुए कहा था- "इस युवक ने अमेरिका से लेकर हिन्दुस्तान तक अंग्रेज़ शासन को उलटने का प्रयास किया। इसे जब और जहाँ भी अवसर मिला, अंग्रेज़ों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न किया। इसकी अवस्था बहुत कम है, किन्तु अंग्रेज़ी शासन के लिए बड़ा भयानक है।" जज ने उन 63 क्रांतिकारियों में से 24 को फाँसी की सज़ा सुनाई। जब इसके विरुद्ध अपील की गई, तो सात व्यक्तियों की फाँसी की सज़ा पूर्ववत् रखी गई थी। उन सात व्यक्तियों के नाम थे- कर्तार सिंह सराबा, विष्णु पिंगले, काशीराम, जगत सिंह, हरिनाम सिंह, सज्जन सिंह एवं बख्शीश सिंह। फांसी पर झूलने से पूर्व कर्तार सिंह ने यह शब्द कहे- “हे भगवान मेरी यह प्रार्थना है कि मैं भारत में उस समय तक जन्म लेता रहूँ, जब तक कि मेरा देश स्वतंत्र न हो जाये|”

          यही कर्तार सिंह सराबा की शहीदी आने वाले समय में क्रांतिकारी भगत सिंह की मार्गदर्शक बनी। भगत सिंह ने कर्तार सिंह को अपने जीवन में आदर्श माना जिनका चित्र वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे और ‘नौजवान भारत सभा’ नामक युवा संगठन के माध्यम से वे करतार सिंह सराबा के जीवन को स्लाइड शो द्वारा नवयुवकों में आज़ादी की प्रेरणा जगाने के लिए दिखाते थे। ‘नौजवान भारत सभा’ की हर जनसभा में कर्तार सिंह सराबा के चित्र को मंच पर रख कर उसे पुष्पांजलि दी जाती थी। एक तरह से भगत सिंह का व्यक्तित्व व चिंतन गदर पार्टी की परंपरा को अपनाते हुए उसके अग्रगामी विकास के रूप में निखरा। गदर पार्टी ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।

            कर्तार सिंह सराबा का नाम हमेशा भारतीय इतिहास में ही नहीं, बल्कि दुनिया के इतिहास में अमर रहेगा। उन्होंने आजादी के लिए भारतीयों के दिल में जो ज्योति जलाई, वह तब तक जलती रही, जब तक कि देश आजाद नहीं हो गया। उनके शौर्य, साहस, त्याग एवं बलिदान की मार्मिक गाथा आज भी भारतीयों को प्रेरणा देती है और देती रहेगी।

            महान क्रांतिकारी #कर्तार_सिंह_सराभा जी की जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन💐💐🙏🏻🙏🏻

जय भारत🇮🇳

Saturday, May 15, 2021

सुखदेव जी


🙏🏻 महान क्रांतिकारी सुखदेव जी 🙏🏻

💐💐जयंती : 15 मई,1907 💐💐

              सुखदेव को भारत के उन प्रसिद्ध क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है जिन्हे न सिर्फ अपनी देशभक्ति, साहस और मातृभूमि पर कुर्बान होने के लिए जाना जाता है, बल्कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह के अनन्य मित्र के रूप में भी उनका नाम इतिहास में दर्ज है| उन्हें भगत सिंह और राजगुरु के साथ 23 मार्च 1931 को फाँसी पर लटका दिया गया था। इनकी शहादत को आज भी सम्पूर्ण भारत में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

              ब्रितानिया हुकूमत को अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से दहला देने वाले शहीद सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ था। सुखदेव का पूरा नाम ‘सुखदेव थापर’ था। उनके माता का नाम राल्ली देवी और पिता का नाम रामलाल थापर था। अपने बचपन से ही उन्होंने भारत में ब्रितानिया हुकूमत के जुल्मों को देखा और इसी के चलते वह गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए क्रांतिकारी बन गए।

               सुखदेव, शहीद भगत सिंह के साथ ‘लाहौर नेशनल कॉलेज’ के छात्र थे। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अत: शीघ्र ही दोनों का परिचय गहरी दोस्ती में बदल गया। दोनों ही अत्यधिक कुशाग्र और देश की तत्कालीन समस्याओं पर विचार करने वाले थे। 1926 में लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन हुआ जिसके मुख्य संयोजक सुखदेव थे। इस टीम मे भगत सिंह, यशपाल, भगवतीचरण और जयचंद्र विद्यालंकार जैसे क्रांतिकारी भी थे।

               असहयोग आन्दोलन की विफलता के पश्चात नौजवान भारत सभा का मकसद स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम और भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था। लेकिन सुखदेव की जिंदगी मे बड़ा मोड़ तब आया जब सितम्बर 1928 में ही दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला के खण्डहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंद्रीय समिति का निर्माण हुआ। संगठन का नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ रखा गया। सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। भगत सिंह दल के राजनीतिक नेता थे और सुखदेव संगठनकर्ता। एच. आर. एस. ए. ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ अलख जगाना शुरू किया।

               सुखदेव न सिर्फ लाहौर के नेशनल कॉलेज में युवाओं में देशभक्ति का जज्बा भरने का काम किया, बल्कि खुद भी क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनका नाम 1928 की उस घटना के लिए प्रमुखता से जाना जाता है जब क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए गोरी हुकूमत के कारिन्दे सहायक पुलिस अधीक्षक सांण्डर्स को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था और पूरे देश में क्रांतिकारियों की जय-जय कार हुई थी। सांण्डर्स की हत्या के मामले को ‘लाहौर षड्यंत्र’ के रूप में जाना गया।

                1929 में सेंट्रल एसेंबली में बम फेंकने के लिए पहले भगत सिंह का नाम नहीं दिया गया था क्योंकि पुलिस को पहले से ही उनकी तलाश थी। क्रांतिकारी नहीं चाहते थे कि भगत सिंह पकड़े जाएं। लेकिन सुखदेव भगत सिंह के नाम पर अड़ गए। उनका कहना था कि भगत सिंह लोगों में जागृति पैदा कर सकते हैं। सुखदेव का तर्क सुनने के बाद भगत सिंह को उनकी बात सही लगी। कई लोगों ने सुखदेव को कठोर दिल भी कहा कि उन्होंने अपने दोस्त भगत सिंह को मौत के मुंह में भेज दिया।

               जब दिल्ली में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेम्बली में बम फेंककर धमाका किया गया तो चारों ओर से गिरफ्तारी का दौर शुरू हुआ। लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई, जिसमें सुखदेव भी अन्य क्रांतिकारियों के साथ पकड़े गए। जेल से सुखदेव ने गांधी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में एक खुला खत गांधी जी के नाम अंग्रेजी में लिखा था जिसमें उन्होंने गांधी जी से कुछ गम्भीर प्रश्न किये थे।

              सुखदेव का लिखा पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो न केवल देश की तत्कालीन स्थिति का विवेचन करता है, बल्कि कांग्रेस की मानसिकता को भी दर्शाता है। उस समय गांधी जी अहिंसा की दुहाई देकर क्रांतिकारी गतिविधियों की निंदा करते थे। इस पर कटाक्ष करते हुए सुखदेव ने लिखा, “मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है|”

             उसका उत्तर यह मिला कि लाहौर षड़यंत्र मामले के एकतरफ़ा अदालती कार्रवाई में उन्हें दोषी करार देते हुए निर्धारित तिथि और समय से पूर्व जेल मैनुअल के नियमों को दरकिनार रखते हुए 23 मार्च 1931 को सायंकाल 7 बजे सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह तीनों को लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी पर लटका कर मार डाला गया। इन तीनों क्रांतिकारी तो हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए लेकिन देश के युवाओं के मन में आजादी पाने की नई ललक पैदा कर गए। शहादत के समय सुखदेव की उम्र मात्र 24 साल थी।

               महान क्रांतिकारी सुखदेव जी की जयंती पर जन हितकारी संगठन उन्हें कोटि कोटि नमन करता है 💐💐🙏🏻🙏🏻

जय भारत🇮🇳

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Thursday, March 4, 2021

लाला हदयाल जी


 लाला हरदयाल जी का जन्म 4 अक्टूबर 1884 को दिल्ली के पंजाबी परिवार में हुआ। हरदयाल, भोली रानी और गौरी दयाल माथुर की सांत संतानों में से छठी संतान थे। उनके पिता जिला न्यायालय के पाठक थे। लाला कोई उपनाम नही बल्कि कायस्थ समुदाय के बीच उप-जाति पदनाम था। साथ ही उनकी जाति में ज्ञानी लोगो को पंडित की उपाधि भी दी जाती है।

जीवन के शुरुवाती दिनों में ही उनपर आर्य समाज का काफी प्रभाव पड़ा। साथ ही वे भिकाजी कामा, श्याम कृष्णा वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर से भी जुड़े हुए थे। कार्ल मार्क्स, गुईसेप्पे मज्ज़िनी, और मिखैल बकुनिन से उन्हें काफी प्रेरणा मिली।

कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में पढ़कर उन्होंने सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली से संस्कृत में बैचलर की डिग्री हासिल की और साथ ही पंजाब यूनिवर्सिटी से उन्होंने संस्कृत में मास्टर की डिग्री भी हासिल की थी। 1905 में संस्कृत में उच्च-शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से उन्होंने 2 शिष्यवृत्ति मिली।

इसके बाद आने वाले सालो में वे ऑक्सफ़ोर्ड से मिलने वाली शिष्यवृत्ति को त्यागकर 1908 में भारत वापिस आ गए और तपस्यमायी जीवन जीने लगे। लेकिन भारत में भी उन्होंने प्रसिद्ध अखबारों के लिए कठोर लेख लिखना शुरू किया, जब ब्रिटिश सरकार ने उनके कठोर लेखो को देखते हुए उनपर प्रतिबंध लगाया तो लाला लाजपत राय ने उन्हें भारत छोड़कर विदेश चले जाने की सलाह दी थी।

1910 में हरदयाल सेन फ्रांसिस्को (अमेरिका) पहुचे | वहा उन्होंने भारत से गये मजदूरों को संगठित किया | “गदर नामक पत्र निकाला | इसी के आधार पर पार्टी का नाम भी “गदर पार्टी रखा गया | “गदर पत्र ने संसार का ध्यान भारत में अंग्रेजो द्वारा किये जा रहे अत्याचारों की ओर दिलाया | नई पार्टी की कनाडा , चीन , जापान आदि में शाखाए खोली गयी | हरदयाल इसके महासचिव थे |

प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर लाला हरदयाल ने भारत ने सशस्त्र क्रान्ति को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाये | जून 1915 में जर्मनी से दो जहाजो में भरकर बंदूके बंगाल भेजी गयी ,परन्तु मुखबिरों की सुचना पर दोनों जहाज जब्त कर लिए गये | हरदयाल ने भारत के पक्ष का प्रचार करने के लिए स्विटजरलैंड , तुर्की आदि देशो की भी यात्रा की | जर्मनी ने उन्हें कुछ समय तक नजरबंद भी कर लिया गया था | वहा से वे स्वीडन चले गये उन्होंने अपने जीवन के 15 वर्ष बिताये |

अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कही से सहयोग मिलने पर वे शांतिवाद का प्रचार करने लगे | इस विषय पर व्याख्यान देने के लिए वे फिलाडल्फिया गये थे | वे 1939 में भारत आने के लिए उत्सुक थे | उन्होंने अपनी पुत्री का मुंह भी नही देखा जो उनके देश छोड़ने के बाद पैदा हुयी थी पर यह हो न सका | भारत में उनके आवास की व्यवस्था हो चुकी थी पर देश की आजादी का यह फकीर 4 मार्च 1939 को कुर्सी में बैठा-बैठा विदेश में ही सदा के लिए सो गया |

Friday, February 26, 2021

संत रविदास जी



संत रविदास (रैदास) का जन्म काशी में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी तथा पिता का नाम संतोख दास था। चर्मकार कुल से होने के कारण जूते बनाने का अपना पैतृक व्यवसाय उन्होंने ह्रदय से अपनाया था। वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे। 
 
संत रविदास बचपन से ही परोपकारी और दयालु स्वभाव के थे। दूसरों की सहायता करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। खास कर साधु-संतों की सेवा और प्रभु स्मरण में वे विशेष ध्यान लगाते थे। 
 
एक दिन संत रैदास (‍रविदास) अपनी कुटिया में बैठे प्रभु का स्मरण करते हुए कार्य कर रहे थे, तभी एक ब्राह्मण रैदासजी की कुटिया पर आया और उन्हें सादर वंदन करके बोला कि मैं गंगाजी स्नान करने जा रहा था, सो रास्ते में आपके दर्शन करने चला आया।

रैदासजी ने कहा कि आप गंगा स्नान करने जा रहे हैं, यह एक मुद्रा है, इसे मेरी तरफ से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण जब गंगाजी पहुंचा और स्नान करके जैसे रुपया गंगा में डालने को उद्यत हुआ तो गंगा नदी में से गंगा मैया ने जल में से अपना हाथ निकालकर वह रुपया ब्राह्मण से ले लिया तथा उसके बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया।

ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर लौट रहा था तो वह नगर के राजा से मिलने चला गया। ब्राह्मण को विचार आया कि यदि यह कंगन राजा को दे दिया जाए तो राजा बहुत प्रसन्न होगा। उसने वह कंगन राजा को भेंट कर दिया। राजा ने बहुत-सी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी।

ब्राह्मण अपने घर चला गया। इधर राजा ने वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में बहुत प्रेम से पहनाया तो महारानी बहुत खुश हुई और राजा से बोली कि कंगन तो बहुत सुंदर है, परंतु यह क्या एक ही कंगन, क्या आप बिल्कुल ऐसा ही एक और कंगन नहीं मंगा सकते हैं।
 
राजा ने कहा- प्रिये ऐसा ही एक और कंगन मैं तुम्हें शीघ्र मंगवा दूंगा। राजा से उसी ब्राह्मण को खबर भिजवाई कि जैसा कंगन मुझे भेंट किया था वैसा ही एक और कंगन मुझे तीन दिन में लाकर दो वरना राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा। खबर सुनते ही ब्राह्मण के होश उड़ गए। वह पछताने लगा कि मैं व्यर्थ ही राजा के पास गया, दूसरा कंगन कहां से लाऊं? 
 
इसी ऊहापोह में डूबते-उतरते वह रैदासजी की कुटिया पर पहुंचा और उन्हें पूरा वृत्तांत बताया कि गंगाजी ने आपकी दी हुई मुद्रा स्वीकार करके मुझे एक सोने का कंगन दिया था, वह मैंने राजा को भेंट कर दिया। अब राजा ने मुझसे वैसा ही कंगन मांगा है, यदि मैंने तीन दिन में दूसरा कंगन नहीं दिया तो राजा मुझे कठोर दंड देगा रैदासजी बोले कि तुमने मुझे बताए बगैर राजा को कंगन भेंट कर दिया। इसका पछतावा मत करो। यदि कंगन तुम भी रख लेते तो मैं नाराज नहीं होता, न ही मैं अब तुमसे नाराज हूं।
 
रही दूसरे कंगन की बात तो मैं गंगा मैया से प्रार्थना करता हूं कि इस ब्राह्मण का मान-सम्मान तुम्हारे हाथ है। इसकी लाज रख देना। ऐसा कहने के उपरांत रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे चर्म गलाते थे। उसमें जल भरा हुआ था।
 
उन्होंने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का तब गंगा मैया प्रकट हुई और रैदास जी के आग्रह पर उन्होंने एक और कड़ा ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया और रैदासजी ने अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास ब्राह्मण को नहीं होने दिया। ऐसे थे महान संत रविदास। 
 
एक अन्य प्रसंग के अनुसार एक बार एक पर्व के अवसर पर उनके पड़ोस के लोग गंगा जी में स्नान के लिए जा रहे थे। 
 
रविदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी गंगा स्नान के लिए चलने का आग्रह किया। उन्होंने उत्तर दिया- गंगा स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किंतु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का वचन मैंने दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो मेरा वचन भंग होगा। ऐसे में गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहां लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? 
 
मन जो काम करने के लिए अंत:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। अगर मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। माना जाता है कि इस प्रकार के उनके व्यवहार के बाद से ही यह कहावत प्रचलित हो गई कि- 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' 
 
संत रविदास की रचनाएं :- 
 
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
 
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, 
जाकी अंग-अंग बास समानी।
 
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, 
जैसे चितवत चंद चकोरा।
 
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, 
जाकी जोति बरै दिन राती।
 
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, 
जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
 
प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा, 
ऐसी भक्ति करै रैदासा।

*****
 
पूजा कहा चढ़ाऊं... 
 
राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊं ।
फल अरु फूल अनूप न पाऊं ॥टेक॥
 
थन तर दूध जो बछरू जुठारी ।
पुहुप भंवर जल मीन बिगारी ॥1॥
 
मलयागिर बेधियो भुअंगा ।
विष अमृत दोउ एक संगा ॥2॥
 
मन ही पूजा मन ही धूप ।
मन ही सेऊं सहज सरूप ॥3॥
 
पूजा अरचा न जानूं तेरी ।
कह रैदास कवन गति मोरी ॥4॥ 

चंद्रशेखर आजाद जी


 

चंद्रशेखर आज़ाद

         आज़ादी के दीवाने चंद्रशेखर आजाद भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के निर्भय क्रांतिकारी थे। चंद्रशेखर आजाद जी का एक ही लक्ष्य था, भारत की आजादी। इस लक्ष्य के सामने उनके लिए और बाकी सारे मुद्दे गौण थे। व्यक्तिगत जीवन का तो उनके लिये कोई मोल ही नहीं था इस मामले में भारत की आजादी के लक्ष्य को पाने के लिये जीवन में सुख सुविधाओं की चिंता करने का तो उनके लिए प्रश्न ही नहीं उठता।

         चंद्रशेखर आजाद जी का जन्म ग्राम भावरा जिला अलीराजपुर, मध्य प्रदेश में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनके माता का नाम जगरानी देवी और पिता का नाम सीताराम था। वे 14 वर्ष की आयु में बनारस गए और वहाँ एक संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई की। अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने चंद्रशेखर को व्याकुल कर दिया तभी से उनके मन में एक आग धधक रही थी।

         सन 1921 में उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जहाँ उन्होंने अपना नाम 'आजाद', पिता का नाम 'स्वतंत्रता' और 'जेल' को अपना निवास स्थान बताया। उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली। उन्हें नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उन पर पड़ते थे और उनकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वे ‘वन्देमातरम्‌' और ‘भारत माता की जय!' चिल्लाते थे। हर बेंत के साथ वे तब तक यही नारा लगाते रहे, जब तक वे बेहोश न हो गये। इसके बाद वे सार्वजनिक रूप से आजाद कहलाए।

         सन् 1922 में गाँधी जी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वे वहां क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल जी से मिले। चंद्रशेखर आजाद के समर्पण और निष्ठा की पहचान करने के बाद बिस्मिल जी ने आजाद को अपनी क्रान्तिकारी संस्था “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनका सक्रिय सदस्य बना दिया।

         इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल जी के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। चंद्रशेखर आजाद देश भर में अनेक क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया और अनेक अभियानों का प्लान, निर्देशन और संचालन सफलता पूर्वक किया। उन्होंने रूस की बोल्शेविक क्रान्ति की तर्ज पर समाजवादी क्रान्ति का आह्वान किया। सभी क्रान्तिकारी साथी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे।

         सन् 1927 में राम प्रसाद 'बिस्मिल' जी के साथ 3 प्रमुख साथियों के बलिदान और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद जी ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इस सभा में यह तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को एक नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये।

         पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व संभाला और भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया कि- हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत।"

           चंद्रशेखर आज़ाद जी भूमिगत हो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध गतिविधियों का संचालन करने लगे। लाहौर में लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला लेने के लिए साण्डर्स वध (1928) में भी चंद्रशेखर आजाद जी ने भगत सिंह का साथ दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद जी के ही सफल नेतृत्व में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया।  ब्रिटिश सरकार ने चंद्रशेखर आज़ाद को पकड़वाने के लिए तीस हजार रूपये के इनाम का एलान कर दिया अतः उन्होंने जीवित सरकार के हाथ न आने की घोषणा कर दी।

         चन्द्रशेखर आज़ाद जी ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारी भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की सजा कम कराने के लिए इलाहाबाद गये और 27 फ़रवरी 1931 को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। चंद्रशेखर आजाद जी ने जवाहरलाल नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र-कैद में बदलवाने के लिए जोर डालाजवाहरलाल नेहरू ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर जवाहरलाल नेहरू ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये।

         किसी बड़ी साजिस के तहत मुखबिर के संकेत पर पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद जी को अलफ्रेड पार्क में घेर लिया। उन्होंने अपने जेब से पिस्तौल निकाल कर गोलियां चलानी शुरू कर दीदोनों ओर से भयंकर गोलीबारी हुईलेकिन जब चंद्रशेखर के पास मात्र एक ही गोली शेष रह गई तो उन्हें पुलिस का सामना करना मुश्किल लगा। उन्होंने संकल्प किया था कि वे न कभी पकड़े जाएँगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फाँसी दे सकेगी। इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने उस आखरी गोली से खुद को मारकर मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दी और ‘आजाद’ नाम सार्थक किया।

          पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद जी का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थीउनके शरीर पर गोली चला और पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु की पुष्टि हुई पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जिस पार्क में उनका निधन हुआ था उसका नाम बाद में अलफ्रेड पार्क को परिवर्तित कर “चंद्रशेखर आज़ाद पार्क” रखा गया आजाद का जन्म स्थान भावरा अब 'आजाद नगर' के रूप में जाना जाता है।

          ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हैं। चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। चंद्रशेखर आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा। चंद्रशेखर!  तुम गुलाम देश में आजाद हो जिए और हम आजाद देश में गुलाम हैं।


Thursday, January 28, 2021

लाला लाजपत राय जी


लाला लाजपत राय जन्म: 28 जनवरी 1865 - मृत्यु: 17 नवम्बर 1928भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्हें पंजाब केसरी भी कहा जाता है। इन्होंने पंजाब नैशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कम्पनी की स्थापना भी की थी। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के तीन प्रमुख नेताओं लाल-बाल-पाल में से एक थे। सन् 1928 में इन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध एक प्रदर्शन में हिस्सा लिया, जिसके दौरान हुए लाठी-चार्ज में ये बुरी तरह से घायल हो गये और अन्ततः १७ नवम्बर सन् १९२८ को इनकी महान आत्मा ने पार्थिव देह त्याग दी।लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब के मोगा जिले में 28 जनवरी 1865 को एक जैन परिवार में हुआ था। इन्होंने कुछ समय हरियाणा के रोहतक और हिसार शहरों में वकालत की। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के प्रमुख नेता थे। बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल के साथ इस त्रिमूर्ति को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाता था। इन्हीं तीनों नेताओं ने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की थी बाद में समूचा देश इनके साथ हो गया। इन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ मिलकर आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। लाला हंसराज एवं कल्याण चन्द्र दीक्षित के साथ दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों का प्रसार किया, लोग जिन्हें आजकल डीएवी स्कूल्स व कालेज के नाम से जानते है। लालाजी ने अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा भी की थी। 30 अक्टूबर 1928 को इन्होंने लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध आयोजित एक विशाल प्रदर्शन में हिस्सा लिया, जिसके दौरान हुए लाठी-चार्ज में ये बुरी तरह से घायल हो गये। उस समय इन्होंने कहा था: "मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।" और वही हुआ भी; लालाजी के बलिदान के 20 साल के भीतर ही ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया। 17 नवंबर 1928 को इन्हीं चोटों की वजह से इनका देहान्त हो गया।
लालाजी की मौत का बदला

लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ादभगत सिंहराजगुरुसुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी पर जानलेवा लाठीचार्ज का बदला लेने का निर्णय किया। इन देशभक्तों ने अपने प्रिय नेता की हत्या के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई।

कर्तार सिंह सराभा

  महान क्रांतिकारी #कर्तार_सिंह_सराभा जी🙏🏻🙏🏻 #जयंती: 24 मई,1896💐💐               कर्तार सिंह सराबा भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में...