Monday, September 28, 2020

भगत सिंह



महान क्रांतिकारी भगत सिंह 🙏🏻
जयंती : 28 सितम्बर, 1907 💐💐
 
भगत सिंह  देश की आजादी के लिए जिस साहस के साथ अंग्रेजों का मुकाबला किया, वह आज के युवाओं के लिए एक आदर्श है। इन्होंने सेंट्रल असेम्बली में बम फेंककर भी भागने से मना कर दिया था। जिसके कारण इन्हें 23 मार्च 1931 को इनके दो साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव के साथ फाँसी पर लटका दिया गया था।

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के ज़िला लायलपुर में बंगा गाँव (पाकिस्तान) में हुआ था, एक देशभक्त सिख परिवार में हुआ था, जिसका अनुकूल प्रभाव उन पर पड़ा था। भगतसिंह के पिता 'सरदार किशन सिंह' एवं उनके दो चाचा 'अजीतसिंह' तथा 'स्वर्णसिंह' अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने के कारण जेल में बन्द थे । जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया । इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गयी थी । भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम 'भागां वाला' (अच्छे भाग्य वाला) रखा । बाद में उन्हें 'भगतसिंह' कहा जाने लगा । वे 14 वर्ष की आयु से ही पंजाब की क्रान्तिकारी संस्थाओं में कार्य करने लगे थे। डी.ए.वी. स्कूल से उन्होंने नवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1923 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें विवाह बन्धन में बाँधने की तैयारियाँ होने लगी तो वे लाहौर से भागकर कानपुर आ गये।

कानपुर में उन्हें श्री गणेश शंकर विद्यार्थी का हार्दिक सहयोग भी प्राप्त हुआ। देश की स्वतंत्रता के लिए अखिल भारतीय स्तर पर क्रान्तिकारी दल का पुनर्गठन करने का श्रेय सरदार भगतसिंह को ही जाता है। उन्होंने कानपुर के 'प्रताप' में 'बलवंत सिंह' के नाम से तथा दिल्ली में 'अर्जुन' के सम्पादकीय विभाग में 'अर्जुन सिंह' के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को 'नौजवान भारत सभा' से भी सम्बद्ध रखा।

1919 में रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है।

1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपत राय ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। ये नाटक थे - 1.   राणा प्रताप 2.   भारत-दुर्दशा 3.   सम्राट चन्द्रगुप्त

वे 'चन्द्रशेखर आज़ाद' जैस महान क्रान्तिकारी के सम्पर्क में आये और बाद में उनके प्रगाढ़ मित्र बन गये। 1928 में 'सांडर्स हत्याकाण्ड' के वे प्रमुख नायक थे। 8 अप्रैल, 1929 को ऐतिहासिक 'असेम्बली बमकाण्ड' के भी वे प्रमुख अभियुक्त माने गये थे। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल भी की थी। वास्तव में इतिहास का एक अध्याय ही भगतसिंह के साहस, शौर्य, दृढ़ सकंल्प और बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है।

विचार-विमर्श के पश्चात यह निर्णय हुआ कि इस सारे कार्य को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु अंजाम देंगे। पंजाब के बेटों ने लाजपत राय के ख़ून का बदला ख़ून से ले लिया। सांडर्स और उसके कुछ साथी गोलियों से भून दिए गए। उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक 'सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।

गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात 8 अप्रैल 1929 का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्र्वर दत्त निश्चित हुए। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी क़ानून के विरुद्ध थे तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय पब्लिक सेफ्टी बिल को क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही किया भी गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्र्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।

भगत सिंह और उनके साथियों पर 'लाहौर षडयंत्र' का मुक़दमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।

23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देशभक्ति को अपराध कहकर फांसी पर लटका दिए गए। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। 'लाहौर षड़यंत्र' के मुक़दमें में भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा मिली तथा 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन की आयु में ही, 23 मार्च 1931 की रात में उन्होंने हँसते-हँसते संसार से विदा ले ली। भगतसिंह के उदय से न केवल अपने देश के स्वतंत्रता संघर्ष को गति मिली वरन् नवयुवकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ। वे देश के समस्त शहीदों के सिरमौर थे। 24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहां पहुंचे, जहां इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियां पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। देश और विदेश के प्रमुख नेताओं और पत्रों ने अंग्रेज़ी सरकार के इस काले कारनामे की तीव्र निंदा की।

महान_क्रांतिकारी भगत सिंह जी की जयंती पर जन_हितकारी_संगठन उन्हें कोटि कोटि नमन करता है 💐💐🙏🏻🙏🏻

जय भारत🇮🇳

Thursday, September 10, 2020

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी / बाघा जतीन



महान क्रांतिकारी 
जतीन्द्रनाथ मुखर्जी / बाघा जतिन 
🙏🏻
बलिदान दिवस: 10 सितम्बर, 1915 💐💐

         जतिंद्रनाथ मुखर्जी प्यार से 'बाघा जतिनके रूप में याद किये जाते है। भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ मुख्य बंगाली क्रांतिकारियों में से थे। एक बहुत छोटी उम्र से, बाघा जतिन ने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और युगांतर राजनीतिक दल के मुख्य नेता थे। युगान्तर पार्टी बंगाल में क्रान्तिकारियों का प्रमुख संगठन थी। चार्ल्स ऑगस्टस तेगार्ट, भारत में एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी ने मशहूर टिप्पणी की है कि “बंगाली क्रांतिकारी निस्वार्थ राजनैतिक कार्यकर्ताओं की एक नस्ल के हैं और बाघा जतिन एक शानदार उदाहरण थे।”

         जतिंद्रनाथ मुखर्जी का जन्म नदिया (जैसोर) जिले के कुश्तिया उपखंड के कायाग्राम में 7 दिसम्बर 1879 में हुआ था। पांच वर्ष कि अल्पायु में उनके पिता का देहांत हो गया। माँ ने बड़ी कठिनाई से उनका लालन-पालन किया। वह बचपन से ही बड़े बलिष्ठ थे। सत्यकथा है कि एक बार जंगल से गुजरते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ (रॉयल बेन्गाल टाईगर) से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने हसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद जतिन्द्रनाथ “बाघा जतीन” के नाम से विख्यात हो गए थे।

         18 वर्ष की आयु में उन्होंने मैट्रिक पास कर ली। अपने कॉलेज के वर्षों के दौरान जतिन्द्रनाथ स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आये जिनके सामाजिक और राजनीतिक विचारों को बाद में जतीन ने प्रेरणा के रूप में क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करने के लिए उपयोग किया। बाघा जतीन की धर्मार्थ की भावना ने उन्हें प्राकृतिक आपदाओं में बाढ़ और महामारी की पीड़ा के लिए राहत गतिविधियों को शुरू करने के लिए मदद की। ब्रिटिश भारत के औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली से नाखुश, जतिन्द्रनाथ ने 1899 में अपनी पढ़ाई छोड़ दी।

          जतिन्द्रनाथ 1900 में अनुशीलन समिति के संस्थापकों में से एक थे। अनुशीलन समिति ने ब्रिटिश सरकार के समर्थकों और अधिकारियों को मारने की दिशा में काम किया। अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखने के लिए उन्होंने अपने कई क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर देवघर और कलकत्ता के मानिकतला क्षेत्र में बम कारखानों की स्थापना की। वर्ष 1907 में बाघा जतीन दार्जिलिंग में तीन वर्ष की अवधि के लिए एक विशेष मिशन पर गए। उन्होंने दार्जिलिंग में अनुशीलन समिति की एक शाखा खोली और नाम दिया बंधब समिति।

          बाघा जतीन ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में क्रांतिकारियों की विभिन्न शाखाओं के बीच मजबूत संपर्क स्थापित किया। यह वह समय था जब वरिष्ठ नेताओं के सलाखों के पीछे जाने के बाद बाघा जतीन अंग्रेजों के खिलाफ बंगाल क्रांति के नए नेता के रूप में उभरे। वह बंगाल में उग्रवादी क्रांतिकारी नीति शुरू करने के लिए उत्तरदायी थे। बाघा जतीन को 27 जनवरी 1910 को गिरफ्तार किया गया था हालांकि वह कुछ दिनों के बाद छोड़ दिए गए थे।

          जेल से अपनी रिहाई के बादवह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था कि “पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रान्तिकारियों का लक्ष्य है। देशी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवन यापन का अवसर देना हमारी मांग है।” बाघा जतीन ने अपने राजनीतिक विचारों से एक नए युग की शुरूआत की। बाघा जतीन की राजनीति में वापसी इतनी प्रभावशाली रही कि क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने बनारस से कलकत्ता स्थानांतरित होकर बाघा जतीन के नेतृत्व में काम करना स्वीकार किया।

         क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन सरकारी खजाने को लूटना था। इन लूटों में 'गार्डन रीच' की लूट बड़ी मशहूर मानी जाती है जिसके मुख्य नेता बाघा जतीन थे। 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के बादजतिन्द्रनाथ की युगांतर पार्टी ने बर्लिन समिति और जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता पार्टी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जबकि भारतीयों की अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी योजनाओं को जर्मनी का समर्थन प्राप्त थायह बाघा जतीन ही थे जिन्होंने इस पूरी प्रक्रिया में समन्वय और नेतृत्व प्रदान किया था।

         हालांकि युगांतर और बाघा जतीन की गतिविधियों ने जल्द ही पुलिस अधिकारियों का ध्यान पकड़ा, जिससे बाघा जतीन अप्रैल 1915 में उड़ीसा में बालासोर जाने के लिए मजबूर हुए। जैसे ही जर्मनी के साथ बाघा जतीन की भागीदारी के बारे में ब्रिटिश अधिकारियों को पता चला, उन्होंने तत्काल कार्रवाई से गंगा के डेल्टा क्षेत्रों, उड़ीसा के चटगांव और नोआखली तटीय क्षेत्रों को सील कर दिया। बाघा जतीन के ठिकाने की खोज करने के लिए पुलिस खुफिया विभाग की एक इकाई को बालासोर भेजा था।

           केवल ब्रिटिश बल्कि ग्रामीण भी बाघा जतीन और उनके साथियों की खोज में थे क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने 'पांच डाकुओंके बारे में जानकारी देने वाले को इनाम देने की घोषणा की थी। अंत में 9 सितम्बर 1915 को बाघा जतीन और उनके साथियों ने बालासोर में चाशाखंड क्षेत्र में एक पहाड़ी पर बारिश से बचने के लिए आश्रय लिया तभी पुलिस ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। हालांकि चित्ताप्रिय और उनके साथियों ने बाघा जतीन से आग्रह किया वे उन्हें छोड़ कर चले जाए लेकिन जतीन ने अपने दोस्तों को खतरे में अकेला छोड़कर जाने से इनकार कर दिया।

          पांच क्रांतिकारियों जिनके पास माउजर, पिस्टल थी और आधुनिक राइफल से लैस पुलिस और सशस्त्र सेना के बीच 75 मिनट चली मुठभेड़ में अनगिनत लोग ब्रिटिश सरकार के घायल हो गए और क्रांतिकारियों में चित्ताप्रिय की मृत्यु हो गई। इसी बीच जतीन बाघा का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। जब गोला बारूद ख़त्म हो गया तो बाघा जतीन और उनके साथी पकडे गए। गिरफ्तारी देते वक्त बाघा जतीन ने कहा- ‘गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं।’

          बाघा जतिन को बालासोर अस्पताल ले जाया गया। इसके अगले दिन 10 सितम्बर 1915 को भारत की आज़ादी के इस महान क्रांतिकारी ने अस्पताल में सदा के लिए आँखें मूँद लीं। मातृभूमि के लिए उनका शौर्य और बलिदान हमेशा याद रखा जाएगा। बाघा जतिन के अन्तिम शब्द थे कि -

सूख न जाए कहीं पौधा ये आज़ादी का, खून से अपने इसे इसलिए तर करते हैं।

दर-ओ-दीवार पर हसरत से नजर करते हैं,

खुश रहो अहल-ए-वतनहम तो सफ़र करते हैं।।

महान क्रांतिकारी जतिंद्रनाथ मुखर्जी के बलिदान दिवस पर "जन हितकारी संगठन" उन्हें कोटि कोटि नमन करता है 💐💐🙏🏻🙏🏻

जय भारत🇮🇳

कर्तार सिंह सराभा

  महान क्रांतिकारी #कर्तार_सिंह_सराभा जी🙏🏻🙏🏻 #जयंती: 24 मई,1896💐💐               कर्तार सिंह सराबा भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में...