Friday, February 26, 2021

संत रविदास जी



संत रविदास (रैदास) का जन्म काशी में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी तथा पिता का नाम संतोख दास था। चर्मकार कुल से होने के कारण जूते बनाने का अपना पैतृक व्यवसाय उन्होंने ह्रदय से अपनाया था। वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे। 
 
संत रविदास बचपन से ही परोपकारी और दयालु स्वभाव के थे। दूसरों की सहायता करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। खास कर साधु-संतों की सेवा और प्रभु स्मरण में वे विशेष ध्यान लगाते थे। 
 
एक दिन संत रैदास (‍रविदास) अपनी कुटिया में बैठे प्रभु का स्मरण करते हुए कार्य कर रहे थे, तभी एक ब्राह्मण रैदासजी की कुटिया पर आया और उन्हें सादर वंदन करके बोला कि मैं गंगाजी स्नान करने जा रहा था, सो रास्ते में आपके दर्शन करने चला आया।

रैदासजी ने कहा कि आप गंगा स्नान करने जा रहे हैं, यह एक मुद्रा है, इसे मेरी तरफ से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण जब गंगाजी पहुंचा और स्नान करके जैसे रुपया गंगा में डालने को उद्यत हुआ तो गंगा नदी में से गंगा मैया ने जल में से अपना हाथ निकालकर वह रुपया ब्राह्मण से ले लिया तथा उसके बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया।

ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर लौट रहा था तो वह नगर के राजा से मिलने चला गया। ब्राह्मण को विचार आया कि यदि यह कंगन राजा को दे दिया जाए तो राजा बहुत प्रसन्न होगा। उसने वह कंगन राजा को भेंट कर दिया। राजा ने बहुत-सी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी।

ब्राह्मण अपने घर चला गया। इधर राजा ने वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में बहुत प्रेम से पहनाया तो महारानी बहुत खुश हुई और राजा से बोली कि कंगन तो बहुत सुंदर है, परंतु यह क्या एक ही कंगन, क्या आप बिल्कुल ऐसा ही एक और कंगन नहीं मंगा सकते हैं।
 
राजा ने कहा- प्रिये ऐसा ही एक और कंगन मैं तुम्हें शीघ्र मंगवा दूंगा। राजा से उसी ब्राह्मण को खबर भिजवाई कि जैसा कंगन मुझे भेंट किया था वैसा ही एक और कंगन मुझे तीन दिन में लाकर दो वरना राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा। खबर सुनते ही ब्राह्मण के होश उड़ गए। वह पछताने लगा कि मैं व्यर्थ ही राजा के पास गया, दूसरा कंगन कहां से लाऊं? 
 
इसी ऊहापोह में डूबते-उतरते वह रैदासजी की कुटिया पर पहुंचा और उन्हें पूरा वृत्तांत बताया कि गंगाजी ने आपकी दी हुई मुद्रा स्वीकार करके मुझे एक सोने का कंगन दिया था, वह मैंने राजा को भेंट कर दिया। अब राजा ने मुझसे वैसा ही कंगन मांगा है, यदि मैंने तीन दिन में दूसरा कंगन नहीं दिया तो राजा मुझे कठोर दंड देगा रैदासजी बोले कि तुमने मुझे बताए बगैर राजा को कंगन भेंट कर दिया। इसका पछतावा मत करो। यदि कंगन तुम भी रख लेते तो मैं नाराज नहीं होता, न ही मैं अब तुमसे नाराज हूं।
 
रही दूसरे कंगन की बात तो मैं गंगा मैया से प्रार्थना करता हूं कि इस ब्राह्मण का मान-सम्मान तुम्हारे हाथ है। इसकी लाज रख देना। ऐसा कहने के उपरांत रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे चर्म गलाते थे। उसमें जल भरा हुआ था।
 
उन्होंने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का तब गंगा मैया प्रकट हुई और रैदास जी के आग्रह पर उन्होंने एक और कड़ा ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया और रैदासजी ने अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास ब्राह्मण को नहीं होने दिया। ऐसे थे महान संत रविदास। 
 
एक अन्य प्रसंग के अनुसार एक बार एक पर्व के अवसर पर उनके पड़ोस के लोग गंगा जी में स्नान के लिए जा रहे थे। 
 
रविदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी गंगा स्नान के लिए चलने का आग्रह किया। उन्होंने उत्तर दिया- गंगा स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किंतु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का वचन मैंने दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो मेरा वचन भंग होगा। ऐसे में गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहां लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? 
 
मन जो काम करने के लिए अंत:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। अगर मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। माना जाता है कि इस प्रकार के उनके व्यवहार के बाद से ही यह कहावत प्रचलित हो गई कि- 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' 
 
संत रविदास की रचनाएं :- 
 
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
 
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, 
जाकी अंग-अंग बास समानी।
 
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, 
जैसे चितवत चंद चकोरा।
 
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, 
जाकी जोति बरै दिन राती।
 
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, 
जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
 
प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा, 
ऐसी भक्ति करै रैदासा।

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पूजा कहा चढ़ाऊं... 
 
राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊं ।
फल अरु फूल अनूप न पाऊं ॥टेक॥
 
थन तर दूध जो बछरू जुठारी ।
पुहुप भंवर जल मीन बिगारी ॥1॥
 
मलयागिर बेधियो भुअंगा ।
विष अमृत दोउ एक संगा ॥2॥
 
मन ही पूजा मन ही धूप ।
मन ही सेऊं सहज सरूप ॥3॥
 
पूजा अरचा न जानूं तेरी ।
कह रैदास कवन गति मोरी ॥4॥ 

चंद्रशेखर आजाद जी


 

चंद्रशेखर आज़ाद

         आज़ादी के दीवाने चंद्रशेखर आजाद भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के निर्भय क्रांतिकारी थे। चंद्रशेखर आजाद जी का एक ही लक्ष्य था, भारत की आजादी। इस लक्ष्य के सामने उनके लिए और बाकी सारे मुद्दे गौण थे। व्यक्तिगत जीवन का तो उनके लिये कोई मोल ही नहीं था इस मामले में भारत की आजादी के लक्ष्य को पाने के लिये जीवन में सुख सुविधाओं की चिंता करने का तो उनके लिए प्रश्न ही नहीं उठता।

         चंद्रशेखर आजाद जी का जन्म ग्राम भावरा जिला अलीराजपुर, मध्य प्रदेश में 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनके माता का नाम जगरानी देवी और पिता का नाम सीताराम था। वे 14 वर्ष की आयु में बनारस गए और वहाँ एक संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई की। अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने चंद्रशेखर को व्याकुल कर दिया तभी से उनके मन में एक आग धधक रही थी।

         सन 1921 में उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जहाँ उन्होंने अपना नाम 'आजाद', पिता का नाम 'स्वतंत्रता' और 'जेल' को अपना निवास स्थान बताया। उन्हें 15 बेतों की सज़ा मिली। उन्हें नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उन पर पड़ते थे और उनकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वे ‘वन्देमातरम्‌' और ‘भारत माता की जय!' चिल्लाते थे। हर बेंत के साथ वे तब तक यही नारा लगाते रहे, जब तक वे बेहोश न हो गये। इसके बाद वे सार्वजनिक रूप से आजाद कहलाए।

         सन् 1922 में गाँधी जी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वे वहां क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल जी से मिले। चंद्रशेखर आजाद के समर्पण और निष्ठा की पहचान करने के बाद बिस्मिल जी ने आजाद को अपनी क्रान्तिकारी संस्था “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनका सक्रिय सदस्य बना दिया।

         इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल जी के नेतृत्व में पहले 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। चंद्रशेखर आजाद देश भर में अनेक क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया और अनेक अभियानों का प्लान, निर्देशन और संचालन सफलता पूर्वक किया। उन्होंने रूस की बोल्शेविक क्रान्ति की तर्ज पर समाजवादी क्रान्ति का आह्वान किया। सभी क्रान्तिकारी साथी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे।

         सन् 1927 में राम प्रसाद 'बिस्मिल' जी के साथ 3 प्रमुख साथियों के बलिदान और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद जी ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इस सभा में यह तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को एक नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये।

         पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व संभाला और भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया कि- हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत।"

           चंद्रशेखर आज़ाद जी भूमिगत हो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध गतिविधियों का संचालन करने लगे। लाहौर में लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला लेने के लिए साण्डर्स वध (1928) में भी चंद्रशेखर आजाद जी ने भगत सिंह का साथ दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद जी के ही सफल नेतृत्व में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया।  ब्रिटिश सरकार ने चंद्रशेखर आज़ाद को पकड़वाने के लिए तीस हजार रूपये के इनाम का एलान कर दिया अतः उन्होंने जीवित सरकार के हाथ न आने की घोषणा कर दी।

         चन्द्रशेखर आज़ाद जी ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारी भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की सजा कम कराने के लिए इलाहाबाद गये और 27 फ़रवरी 1931 को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। चंद्रशेखर आजाद जी ने जवाहरलाल नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र-कैद में बदलवाने के लिए जोर डालाजवाहरलाल नेहरू ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर जवाहरलाल नेहरू ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये।

         किसी बड़ी साजिस के तहत मुखबिर के संकेत पर पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद जी को अलफ्रेड पार्क में घेर लिया। उन्होंने अपने जेब से पिस्तौल निकाल कर गोलियां चलानी शुरू कर दीदोनों ओर से भयंकर गोलीबारी हुईलेकिन जब चंद्रशेखर के पास मात्र एक ही गोली शेष रह गई तो उन्हें पुलिस का सामना करना मुश्किल लगा। उन्होंने संकल्प किया था कि वे न कभी पकड़े जाएँगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फाँसी दे सकेगी। इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने उस आखरी गोली से खुद को मारकर मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दी और ‘आजाद’ नाम सार्थक किया।

          पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद जी का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थीउनके शरीर पर गोली चला और पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु की पुष्टि हुई पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जिस पार्क में उनका निधन हुआ था उसका नाम बाद में अलफ्रेड पार्क को परिवर्तित कर “चंद्रशेखर आज़ाद पार्क” रखा गया आजाद का जन्म स्थान भावरा अब 'आजाद नगर' के रूप में जाना जाता है।

          ऐसे व्यक्ति युग में एक बार ही जन्म लेते हैं। चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। चंद्रशेखर आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा। चंद्रशेखर!  तुम गुलाम देश में आजाद हो जिए और हम आजाद देश में गुलाम हैं।


कर्तार सिंह सराभा

  महान क्रांतिकारी #कर्तार_सिंह_सराभा जी🙏🏻🙏🏻 #जयंती: 24 मई,1896💐💐               कर्तार सिंह सराबा भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में...