भारत की स्वतंत्रता के लिए आज़ाद हिंद फ़ौज का नेतृत्व करने
वाले क्रान्तिकारी सुभाष चन्द्र बोस जिन्हें हम नेता जी के नाम से भी जानते हैं, भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी क्रान्तिकारी थे। द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के
लिये उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया ‘जय हिन्द’ का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया|
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री जानकीनाथ बोस और माँ
का नाम श्रीमति प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। अंग्रेज़
सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था। कटक के प्रोटेस्टेण्ट यूरोपियन स्कूल से
प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल
में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष जी के
मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष जी ने विवेकानन्द
साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। सुभाष जी ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बी.ए. (आनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। कलकत्ता
विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।
पिता की इच्छा थी कि सुभाष जी आईसीएस
बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी।
उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय यह सोचने के लिये माँगा ताकि वे परीक्षा देने
या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि
क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। अँग्रेज़ी शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था| परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी
स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष जी ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक
एवं नैतिक विज्ञान की ट्राईपास (आनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें
प्रवेश मिल गया|इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में
एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो
आईसीएस में पास होकर दिखाना था। इसलिए उन्होंने खूब पढ़ाई की और 1920 में सिविल सर्विस की परीक्षा में
चौथा स्थान प्राप्त किया।
इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई
शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो स्वामी
विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रक्खा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह
अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पायेंगे? सुभाष चन्द्र बोस ने 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस
से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशवन्धु चित्तरंजन दास को लिखा। किन्तु
अपनी माँ प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि, “पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर
गर्व है।" सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (आनर्स) की
डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये|
सिविल
सर्विस छोड़ने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए। कोलकता के स्वतन्त्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन
दास के कार्य से प्रेरित होकर सुभाष जी दासबाबू
के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर उनके साथ काम करने की
इच्छा प्रकट की। इसके बाद सुभाष कोलकाता आकर दासबाबू से मिले। उन दिनों गान्धी जी ने
अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था। दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस आन्दोलन में
सहभागी हो गये। सक्रिय राजनीति में आने से पहले नेताजी ने पूरी दुनिया का
भ्रमण किया।
1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अन्दर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिये कोलकता
महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता और दासबाबू कोलकता के महापौर बन
गये। उन्होंने सुभाष जी को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाष जी
ने अपने कार्यकाल में कोलकता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल
डाला। कोलकता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये गये। स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करने
वालों के परिवारजनों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी। बहुत जल्द ही सुभाष जी देश
के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये। सुभाष चंद्र बोस जोशीले
क्रांतिकारी दल के प्रिय थे।
1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब उसे काले झण्डे दिखाये गये। कोलकता में सुभाष
जी ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। 26
जनवरी 1931 को कोलकता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष जी एक विशाल
मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल
भेज दिया। अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष जी को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16
जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ। 1930 में सुभाष जी कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकता
का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष जी को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब
हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो
गये।
सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष
ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता
संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष जी के अच्छे दोस्त बन गये। बाद में सुभाष
जी यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष जी ने
मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली| इस विश्लेषण में उन
दोनों ने गांधी जी के नेतृत्व की जमकर निंदा की|
सन् 1934 में जब सुभाष जी ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे
हुए थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की
आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल (Emilie Schenkl) नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी
मुलाकात करा दी। सुभाष जी एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से विवाह रचा लिया।
1938 में कांग्रेस का 51वाँ वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होना तय
हुआ। इस अधिवेशन से पहले गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष जी को
चुना। इस अधिवेशन में सुभाष जी का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी
भारतीय राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने
अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय
विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष जी चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम
अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी
शुरू कर दिया था परन्तु गान्धी जी इससे सहमत नहीं थे।
1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष जी
चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे
बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष जी ने स्वयं
कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गान्धी जी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना
चाहते थे। गान्धी जी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि
सीतारमैया को चुना। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत
बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।
सब समझते थे कि जब गान्धी जी ने पट्टाभि
सीतारमैय्या का साथ दिया हैं तब वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे। लेकिन वास्तव में सुभाष
जी को चुनाव में 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गान्धी जी के विरोध के बावजूद सुभाष जी 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के
नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गान्धी जी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी
हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाष जी के तरीकों से सहमत नहीं
हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। गाँधी जी के विरोध के चलते इस 'विद्रोही अध्यक्ष' ने त्यागपत्र देने की आवश्यकता महसूस की। गांधी जी के लगातार विरोध को देखते
हुए उन्होंने स्वयं 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।
अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष जी
की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। सुभाष जी के
स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक
शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला
दिया है उसी तरह वे ब्रिटिश
साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे। इसके
परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को
कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं
चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण
अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज
सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने
उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।
नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक
योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस के आखों में धूल झोंकते हुए
न सिर्फ़ भारत से भागने में सफल रहे बल्कि कई देशों का चक्कर लगाते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे। बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय
स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी
के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मन्त्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के
अच्छे दोस्त बन गये। आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले।
वह नौसेना की मदद से जापान पहुँचे | जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व
से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात् नेताजी ने
जापान की संसद (डायट)
के सामने भाषण
दिया।
आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने
अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद
हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी
की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी। पूर्वी एशिया में नेताजी
ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने
और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपने आवाहन में यह सन्देश भी दिया
- "तुम मुझे खून दो,
मैं तुम्हें
आज़ादी दूँगा|"
21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के
सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार ‘आजाद हिन्द
सरकार’ बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपाइन, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान
व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन
द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। नेताजी ने इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया।
इस बीच
दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर
आज़ादी हासिल की जा सकती है। उनके विचारों के देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने
कोलकाता में नज़रबंद कर लिया लेकिन वह अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से
वहां से भाग निकले। वह अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुए जर्मनी जा पहुंचे।
द्वितीय
विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था।
उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ
जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी
नहीं दिये। नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने
और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। कुछ लोग पूर्ण विश्वास के साथ कहते है कि
फैजाबाद के गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस थे| नेताजी की मौत पर
रहस्य इसलिए भी बरकरार है क्योंकि भारत सरकार के पास करीब 150 ऐसी फाइलें हैं जो उनकी मौत के कारण पर रोशनी डाल सकती हैं, लेकिन भारत में आई अब तक की कोई भी सरकार इनका खुलासा नहीं करती।
नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश
में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के
द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष
के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने
बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश
में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के
द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष
के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने
बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं।
आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित
होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।
जहाँ
स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और
कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। नेताजी ने अपना पूरा जीवन इस देश के लिए
कुर्बान कर दिया।