Thursday, December 31, 2020

कृष्ण बल्लभ सहाय

 


महान क्रांतिकारी कृष्ण बल्लभ सहाय

जयंती: 31 दिसंबर, 1898

भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे, जो बाद में पहले बिहार के राजस्व मंत्री और फिर संयुक्त बिहार के मुख्यमंत्री भी बने।. के बी. सहाय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े थे। वह 2 अक्टूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक मुख्यमंत्री पद पर रहे।

कृष्ण बल्लभ का जन्म बिहार के पटना ज़िले में सेखपुर नामक गांव में 31 दिसम्बर, 1898 में हुआ था। वे एक मध्यवर्गीय कायस्थ परिवार में से थे। कृष्ण बल्लभ सहाय ने पटना और हजारी बाग से अपनी शिक्षा ग्रहण की। जब वे कानून की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तो उन्होंने उसे छोड़ दिया।

कृष्ण बल्लभ सहाय 1920 के असहयोग आन्दोलन में शामिल हो गए। सन 1923 में सहाय ने समाज पार्टी के मंत्री के रूप में बिहार विधान परिषद में प्रवेश किया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कृष्ण बल्लभ सहाय ने स्वामी सहजानंद द्वारा चलाए गये किसान आन्दोलन में सक्रिय रूप से सहयोग किया था।

Saturday, December 26, 2020

ऊधम सिंह जी

 

महान क्रांतिकारी ऊधम सिंह जी 🙏🙏

जयंती: 26 दिसंबर,1899 💐💐
महान क्रान्तिकारी उधम सिंह का नाम भारत की आज़ादी की लड़ाई में पंजाब के प्रमुख क्रान्तिकारी के रूप में अमर है। शहीद उधम सिंह ने आजीवन देश की आजादी के लिए संघर्ष किया और 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग कांड के समय पंजाब के तत्कालीन गर्वनर जनरल रहे माइकल ओ' ड्वायर को लन्दन में जाकर गोली मारी और निर्दोष लोगों की हत्या का बदला लिया। और इस तरह हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया।
            उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में हुआ था। सन 1901 में उधम सिंह की माता नारायण कौर और 1907 में उनके पिता तेहल सिंह का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। अनाथालय में उधम सिंह की जिन्दगी चल ही रही थी कि 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया। वह पूरी तरह अनाथ हो गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।
            उधमसिंह देश में सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया था। 13 अप्रैल 1919 को घटित हुए जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। क्रांतिकारियों के खून में आग लग गई। आक्रोश की ज्वाला हर देशवासी के दिल में धधक उठी। वैसे राजनीतिक कारणों से जलियाँवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई।
            उधम सिंह जालियाँवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। उस समय वे इक्कठा हुई भीड़ को अनाथालय के साथियों के साथ पानी पिलाने का काम कर रहे थे। यह हत्याकाण्ड देखकर उनका खून भी खौल उठा और उन्होंने उसी समय जलियांवाला बाग की मिट्टी उठाई और अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में ले जाकर शपथ ली कि जब तक इस नरसंहार के असली गुनहगार को मौत की नींद नहीं सुला दूंगा, तब तक चैन से नहीं बैठूंगा।
            उधम सिंह ने इस हत्याकाण्ड का असली गुनहगार पंजाब के तत्कालीन गर्वनर माइकल ओ' ड्वायर को माना, क्योंकि उसी के आदेश पर यह जनसंहार हुआ था। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की और क्रांतिकारियों से मजबूत संबंध बनाए। वे वर्ष 1927 में पुनः स्वदेश लौटे। यहाँ पर उन्होंने शहीद शिरोमणि भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारियों से मुलाकात की। स्वदेश लौटने के मात्र तीन माह बाद ही वे अवैध हथियारों और प्रतिबन्धित क्रांतिकारी साहित्य के साथ पुलिस की गिरफ्त में आ गए। उन्हें 5 वर्ष की कठोर कैद की सजा हुई।
             वर्ष 1931 में उधम सिंह जेल से रिहा हुए। पुलिस उन पर कड़ी नजर रख रही थी। उधम सिंह वर्ष 1933 में पुलिस को चकमा देने में कामयाब हो गए और कश्मीर जा पहुंचे। इसके बाद वे जर्मनी होते हुए इटली जा पहुंचे। इटली में कुछ माह के बाद फ़्रांस, स्विटजरलैण्ड और आस्ट्रिया होते हुए वर्ष 1934 में अपने मिशन को पूरा करने के लिए इंग्लैण्ड पहुंचने में कामयाब हो गए और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ' ड्वायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगा।
             उधम सिंह को अपने सैकड़ों भाई-बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी जहां माइकल ओ' ड्वायर भी वक्ताओं में से एक था। उधम सिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुंच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके।
              बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ' ड्वायर पर गोलियां दाग दीं। दो गोलियां माइकल ओ डायर को लगीं जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। उन पर मुकदमा चला। अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह माइकल ओ' ड्वायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया। शहीद शिरोमणि उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है।
              4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। इस महान शहीद को इसी जेल के अहाते में दफना दिया गया। इस तरह यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 1974 में पंजाब के सुल्तानपुर लोधी के विधायक साधु सिंह थिण्ड के अथक प्रयासों के चलते ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए। उनकीं अस्थियों को पूरे राजकीय सम्मान के साथ सतलुज में प्रवाहित किया गया। ऐसे महान क्रान्तिकारी हमेशा हमारे लिए प्रेरणास्त्रोत रहेंगे।
महान क्रांतिकारी ऊधम सिंह जी के बलिदान दिवस पर जन हितकारी संगठन उन्हें कोटि कोटि नमन करता है💐💐🙏🙏
जय भारत🇮🇳


बीना दास जी

 


महान महिला क्रांतिकारी बीना दास जी

बलिदान दिवस: 29 दिसम्बर, 1986

भारत की महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं। इनका रुझान प्रारम्भ से ही सार्वजनिक कार्यों की ओर रहा था। 'पुण्याश्रम संस्था' की स्थापना इन्होंने की थी, जो निराश्रित महिलाओं को आश्रय प्रदान करती थी। बीना दास का सम्पर्क 'युगांतर दल' के क्रांतिकारियों से हो गया था। एक दीक्षांत समारोह में इन्होंने अंग्रेज़ गवर्नर स्टनली जैक्सन पर गोली चलाई, लेकिन इस कार्य में गवर्नर बाल-बाल बच गया और बीना गिरफ़्तार कर ली गईं। 1937 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद कई राजबंदियों के साथ बीना दास को भी रिहा कर दिया गया।

#क्रांतिकारी #गतिविधि

कलकत्ता के 'बैथुन कॉलेज' में पढ़ते हुए 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना ने कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज के फाटक पर धरना दिया। वे स्वयं सेवक के रूप में कांग्रेस अधिवेशन में भी सम्मिलित हुईं। इसके बाद वे 'युगांतर' दल के क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आईं। उन दिनों क्रान्तिकारियों का एक काम बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों को गोली का निशाना बनाकर यह दिखाना था कि भारत के निवासी उनसे कितनी नफरत करते हैं। 6 फ़रवरी, 1932 ई. को बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन को विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को दीक्षांत समारोह में उपाधियाँ बाँटनी थीं। बीना दास को बी.ए. की परीक्षा पूरी करके दीक्षांत समारोह में अपनी डिग्री लेनी थी। उन्होंने अपने साथियों से परामर्श करके तय किया कि डिग्री लेते समय वे दीक्षांत भाषण देने वाले बंगाल के गवर्नर स्टेनली जैक्सन को अपनी गोली का निशाना बनाएंगी।

ऐसी महान क्रांतिकारी महिला के बलिदान दिवस पर उन्हें कोटि कोटि नमन 💐💐🙏🏻🙏🏻🇮🇳

Friday, December 25, 2020

गुरु गोविन्द सिंह जी एवम् उनका पूरा परिवार


हमने अपना इतिहास भुला दिया:

विश्व इतिहास में यह एक ऐसी अनोखी घटना है जिसमे पिता ने अपने तरूण सपूतो को धर्म वेदी पर शहीद कर दिया और विश्व इतिहास मे अपना नाम स्वणृक्षरो मे अंकित करवा दिया। क्या दुनिया के किसी और देश मे ऐसी मिसाल मिलती है?

ये जो सप्ताह अभी चल रहा है यानि 21 दिसम्बर से लेकर 27 दिसम्बर तक, इन्ही 7 दिनों में गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा परिवार शहीद हो गया था। 21 दिसम्बर को गुरू गोविंद सिंह द्वारा परिवार सहित आनंदपुर साहिब किला छोङने से लेकर 27 दिसम्बर तक के इतिहास को हम भूला बैठे हैं!

21 दिसंबर:

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने परिवार सहित श्री आनंद पुर साहिब का किला छोड़ा।

22 दिसंबर:

गुरु साहिब अपने दोनों बड़े पुत्रों सहित चमकौर के मैदान में पहुंचे और गुरु साहिब की माता और छोटे दोनों साहिबजादों को गंगू नामक ब्राह्मण जो कभी गुरु घर का रसोइया था उन्हें अपने साथ अपने घर ले आया।

चमकौर की जंग शुरू और दुश्मनों से जूझते हुए गुरु साहिब के बड़े साहिबजादे श्री अजीत सिंह उम्र महज 17 वर्ष और छोटे साहिबजादे श्री जुझार सिंह उम्र महज 14 वर्ष अपने 11 अन्य साथियों सहित मजहब और मुल्क की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए।

23 दिसंबर :

गुरु साहिब की माता श्री गुजर कौर जी और दोनों छोटे साहिबजादे गंगू ब्राह्मण के द्वारा गहने एवं अन्य सामान चोरी करने के उपरांत तीनों की मुखबरी मोरिंडा के चौधरी गनी खान से की और तीनो को मनी खान के हाथों ग्रिफ्तार करवा दिया और गुरु साहिब को अन्य साथियों की बात मानते हुए चमकौर छोड़ना पड़ा।

24 दिसंबर :

तीनों को सरहिंद पहुंचाया गया और वहां ठंडे बुर्ज में नजरबंद किया गया।

25 और 26 दिसंबर:

छोटे साहिबजादों को नवाब वजीर खान की अदालत में पेश किया गया और उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए लालच दिया गया।

27 दिसंबर:

साहिबजादा जोरावर सिंह उम्र महज 8 वर्ष और साहिबजादा फतेह सिंह उम्र महज 6 वर्ष को तमाम जुल्म ओ जब्र उपरांत जिंदा दीवार में चीनने उपरांत जिबह (गला रेत) कर शहीद किया गया और खबर सुनते ही माता गुजर कौर ने अपने साँस त्याग दिए।

एक ज़माना था जब यहाँ पंजाब में इस हफ्ते सब लोग ज़मीन पर सोते थे क्योंकि माता गूजर कौर ने वो रात दोनों छोटे साहिबजादों (जोरावर सिंह व फतेह सिंह) के साथ, नवाब वजीर खां की गिरफ्त में – सरहिन्द के किले में – ठंडी बुर्ज में गुजारी थी। यह सप्ताह सिख इतिहास में शोक का सप्ताह होता है।

पर आज देखता हूँ कि पंजाब समेत पूरा हिन्दुस्तान जश्न में डूबा हुआ है।

गुरु गोबिंद सिंह जी की कुर्बानियों को इस अहसान फरामोश मुल्क ने सिर्फ 300 साल में भुला दिया !!! जो कौमें अपना इतिहास – अपनी कुर्बानियाँ – भूल जाती हैं वो खुद इतिहास बन जाती है।


Thursday, December 17, 2020

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी


राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी

बलिदान दिवस : 27 दिसंबर, 1927

                 राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी देश की स्वतन्त्रता के लिये हँसते-हँसते अपने प्राण न्योछावर करने वाले प्रतिभावान क्रान्तिकारी, देशप्रेम, फौलादी इच्छाशक्ति और दृढ़ निश्चय के प्रतीक थे। राजेन्द्रनाथ को ऐतिहासिक काकोरी काण्ड में अंग्रेजो के विरुद्ध युद्ध छेड़ने, सरकार का तख्ता पलटने और रेलवे खजाना लूटने के आरोप में 17 दिसंबर 1927 को गोण्डा जिला कारागार में निर्धारित तिथि से दो दिन पूर्व फाँसी पर लटकाकर मार दिया गया।

              राजेंद्रनाथ लाहिड़ी का जन्म 23 जून 1901 को बंगाल में पबना जिला के मोहनपुर गांव में हुआ था। उनके माता का नाम बसंत कुमारी और पिता का नाम क्षिति मोहन लाहिड़ी था| उनके जन्म के समय पिता व बड़े भाई बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास की सलाखों के पीछे कैद थे। दिल में राष्ट्रप्रेम की चिन्गारी लेकर मात्र नौ वर्ष की आयु में ही वे बंगाल से अपने मामा के घर वाराणसी पहुँचे। वाराणसी में ही उनकी शिक्षा दीक्षा सम्पन्न हुई।

              राजेन्द्रनाथ काशी नगरी में पढाई करने गये थे किन्तु संयोगवश वहाँ पहले से ही निवास कर रहे सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी सचिन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आ गये। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को देश-प्रेम और निर्भीकता की भावना विरासत में मिली थी। राजेन्द्र की फौलादी दृढ़ता, देशप्रेम और आजादी के प्रति दीवानगी के गुणों को पहचान कर सचिन्द्रनाथ ने उन्हें अपने साथ रखकर बनारस से निकलने वाली पत्रिका बंग वाणी के सम्पादन का दायित्व तो दिया हीअनुशीलन समिति की वाराणसी शाखा के सशस्त्र विभाग का प्रभार भी सौंप दिया। उनकी कार्य कुशलता को देखते हुए उन्हें हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की गुप्त बैठकों में आमन्त्रित भी किया जाने लगा|

             पठन पाठन की अत्यधिक रूचि तथा बाँग्ला साहित्य के प्रति स्वाभाविक प्रेम के कारण राजेन्द्रनाथ अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी माता की स्मृति में बसंतकुमारी नाम का एक पारिवारिक पुस्तकालय स्थापित कर लिया था। काकोरी काण्ड में गिरफ्तारी के समय ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय की बाँग्ला साहित्य परिषद के मंत्री थे। इनके लेख बाँग्ला के बंगवाणी और शंख आदि पत्रों में छपा करते थे। राजेन्द्रनाथ ही बनारस के क्रांतिकारियों के हस्तलिखित पत्र अग्रदूत के प्रवर्तक थे। इनका लगातार यह प्रयास रहता था कि क्रांतिकारी दल का प्रत्येक सदस्य अपने विचारों को लेख के रूप में दर्ज़ करे|

             भारतीय स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड का बड़ा महत्त्व है| यह पहला अवसर था जब स्वाधीनता सेनानियों ने सरकारी खजाना लूटकर जनता में यह विचार फैलाने में सफलता पाई कि क्रान्तिकारी आम जनता के नहीं अपितु शासन के विरोधी है| योजना के अनुसार 9 अगस्त 1925 को सायंकाल लखनऊ के पास काकोरी से छूटी आठ डाउन गाड़ी में जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया गया| काकोरी काण्ड के बाद राजेन्द्रनाथ कलकत्ता चले गये जहाँ दक्षिणेश्वर बम काण्ड में भी उन्हें 5 वर्ष की सजा हुई थी।

              जब काकोरी काण्ड का मुकदमा प्रारम्भ हुआ तो राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को बंगाल की जेल से निकाल कर लखनऊ लाया गया| पकड़े गये सभी क्रांतिवीरों पर शासन के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने एवं खजाना लूटने का अभियोग लगाया गया| इस कांड में लखनऊ की विशेष अदालत ने 6 अप्रैल 1927 को निर्णय सुनाया जिसके अन्तर्गत लूट के लिए मौत का कानून न होने के बावजूद अंग्रेजी हुकूमत ने राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह तथा अशफाक उल्ला खां को मृत्यु दंड दिया गया| फाँसी के फैसले के बाद सभी को अलग कर दिया गया| राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को गोण्डा कारागार भेज दिया गया|

               राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी अध्ययन और व्यायाम में अपना सारा समय व्यतीत करते थे। इसलिए उन्होंने जेल में भी अपनी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं किया। जेलर ने पूछा कि- “प्रार्थना तो ठीक है, परन्तु अन्तिम समय इतनी भारी कसरत क्यो?” राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने उत्तर दिया- व्यायाम मेरा नित्य का नियम है। मृत्यु के भय से मैं नियम क्यों छोड़ दूँ? दूसरा और महत्वपूर्ण कारण है कि हम पुर्नजन्म में विश्वास रखते हैं। व्यायाम इसलिए किया कि दूसरे जन्म में भी बलिष्ठ शरीर मिलें, जो ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ युद्ध में काम आ सके|”

               19 दिसम्बर को रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह तथा अशफाक उल्ला खां तीनों को फाँसी दी गयी लेकिन भयवश अंग्रेजी शासन ने राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को अन्य क्रांतिकारियों से दो दिन पूर्व ही गोंडा कारागार में 17 दिसम्बर 1927 को ही फाँसी दे दी|

                राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने हँसते-हँसते फांसी का फंदा चूमने से पहले ‘वन्देमातरम' की जोरदार हुंकार भरकर जयघोष करते हुए कहा- “मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतंत्र भारत में पुर्नजन्म लेने जा रहा हूँ|” क्रांतिकारी की इस जुनून भरी हुंकार को सुनकर अंग्रेज़ ठिठक गये थे। उन्हें लग गया था कि इस धरती के सपूत उन्हें अब चैन से नहीं जीने देंगे।

 

कर्तार सिंह सराभा

  महान क्रांतिकारी #कर्तार_सिंह_सराभा जी🙏🏻🙏🏻 #जयंती: 24 मई,1896💐💐               कर्तार सिंह सराबा भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में...